शनिवार, 8 अगस्त 2009

आरएसएस वाले क्या सच से रूबरू हो गये ?

अगर ड्रेस कोड की बात करें तो किसी संगठन को बल या गति देने के लिए ड्रेस कोड लागु किया जाता है,अब उस ड्रेस कोड को बदलने की कबायत की जा रही है इसी ड्रेस कोड जरिये देश में लाखों की तादात में स्वंयसेवक बना लिए गए है,और अब उसे बदलने की क्या जरूरत आन पड़ी है .जी हां बिलकुल सही समझे हम उसी बात को कह रहे है जो आप समझ रहे है,राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ बदल रहा है और जल्द ही आप संघ नेताओं को पारंपरिक हाफ खाकी नेकर की बजाय पतलून में देखें तो चौंकियेगा मत। दरअसल संघ के भीतर नए जमाने के साथ खुद को बदलने को लेकर गहरा मंथन चल रहा है। इसी का नतीजा है कि लीक से हटकर संघ के ड्रेस कोड को बदलने की चर्चा जोरों पर है। खुद संघ प्रमुख मोहन भागवत कहते हैं कि सबकी सहमति जिस दिन बन जाएगी उस दिन बदलने में हमको कोई दिक्कत नहीं है। गणवेश में हाफ पैंट भले हो लेकिन शाखा में तो स्वयंसेवक धोती, लुंगी, फुल पैंट, पजामा सबकुछ पहनकर आते हैं।दरअसल 1925 में हेडगेवार ने आरएसएस का गठन किया तब से ही संघ के स्वंयसेवक खाकी निकर में दिखते आये हैं। कई बार इसे लेकर बहस भी हुई लेकिन संघ की ड्रेस आज भी वही है। 21वीं सदी की हकीकत का सामना कर रहा संघ अब ज्यादा देर करना नहीं चाहता। उसकी ये चिंता इसलिये भी है क्योंकि पिछले कुछ सालों में संघ की शाखाओं में कमी आयी है। नये जमाने से कदमताल कर रहा युवा संघ के निकर में शाखाओं में जाना नहीं चाहता।इतना ही नहीं, आरएसएस के अंदर अब ये सोच भी सामने आ रही है कि उनके प्रचारकों को दाम्पत्य जीवन में आने से नहीं रोका जाये। पहले इन मामलों में संघ बहुत कट्टर माना जाता था। संघ प्रमुख मोहन भागवत ने संकेत दिया कि प्रचारकों की शादी को लेकर संघ अपने नियमों में ढ़ील देने पर विचार कर रहा है।भागवत कहते हैं कि प्रचारक कम चाहिए संघ में व्यवस्थापन कार्य में समय देने वाले ज्यादा चाहिए इसलिए सारा विचार करके हम लोगों ने तय किया है कि जिसका ऐसा मन बनता है जब तक ऐसा मन बनता है तब तक प्रचार करे बाकि इच्छा है उसे तो जाकर करे हमको भी दिक्कत नहीं है।दरअसल आरएसएस धीरे-धीरे इस सच का सामना कर रहा है कि उसे अपने अंदर कुछ मूलभूत बदलाव करने होंगे। हिन्दुत्व के नाम पर उसकी छवि अभी तक एक ऐसे संगठन की बन कर रह गयी है जिसकी विचारधारा बहुत हद तक मुस्लिम विरोध पर टिकी है। इस चक्कर में एक उदारवादी हिन्दू आरएसएस से जुड़ने को तैयार नहीं है और मुस्लिम समुदाय के अंदर तो अब तक ये संगठन पैठ ही नहीं बना पाया है। इन्क्लूसिव पॉलिटिक्स के इस दौर में संघ का समय के साथ बदलना उसकी जरूरत भी है और मजबूरी भी। ऐसे में संघ खुद को ऐसे बदलना चाहता है कि जो लोगों खासतौर से युवाओं में उत्साह जगाए।एक समय था जब संघ के शिवरों में सेकडों की तादात में संघ प्रेमी जुड़ते रहे थे लेकिन लम्बे समय से भीड़ नहीं दिख रही है इससे भी संघ चिंतित है,असल में संघ के प्रमुख अगुयाकारों को यह लगने लगा है की संघ से बड़ी तादात में लोगो को जोड़ने के लिए कुछ ना कुछ वो सब करना पडेगा जिससे युवा संघ से जुड़े लेकिन देखने में आ रहा है संघ में काम करने वाले पहले अपने किसी स्वयंसेवक के घर पर रुकते थे और वही पर खाना खाया करते थे,इतना ही नहीं जब यह प्रचारक या अन्य लोग जब उस स्वयंसेवक के घर से बाहर यानी नए पड़ाव के लिए रवाना होते है,तो वो स्वयंसेवक उन महाशय को टिकट से लेकर अन्य बंदोवस्त भी कर देता है ऐसे में खर्चा ना होना तो आम बात हो गयी है,मुझे अच्छे से याद है हमारे एक मित्र है जो लम्बे समय तक संघ में प्रचारक रहे है,अभी हाल में है वे संघ से विदा लेकर शादी कर लिए है इनके जैसे ना जाने कितने प्रचारक है जो संघ की मूलधारा से वापस लौट कर परिवारिकमोह में जा चुके है ,वो बताते है की खुद का खर्चा के नाम पर कुछ भी जाया नहीं होता है,वे बताते रहे है उनके समय में ऐसे भी प्रचारक हुए है जीके पास १०० रूपये का नोट २ साल तक खर्च ही नहीं हुआ,असल में संघ जैसे संगठन के नियम बड़े ही सक्त है ऐसे में हर कोई संघ से जुदा नहीं रहा सकता ,अगर किसी का पिता संघ से जुदा हुआ रहा तो ये उम्मीद ना करे की उसका बेटा भी संघ से जुडेगा ही,ऐसे में तो यही समझ में आ रहा है की संघ जो कुछ बदलाव करने जा रहा है उसके पीछे संघ का घटता प्रभाव समझ में आ रहा है,करीब ५० वर्ष की उम्र में शादी करने वाले उस प्रचारक ने टीचर से शादी रचाई है,वो कहते है की संघ को उन्होने अपने जीवन के ५० साल दिए है लेकिन मिला क्या सिर्फ चंद रुपए अगर टीचर से शादी ना करते तो खाने के लाले पड जाते ,ऐसे में संघ में बदलने में तो बहुत कुछ है लेकिन कितना कुछ बदल कर एक बार फिर से संघ जोश में आ पायेगा इसमें संदेह लग रहा है.

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