गुरुवार, 25 मार्च 2010

खूंखार डकैतों के इलाके में दलित पुजारी का मंदिर

चंबल की घनघोर घाटियों को आम तौर पर लोग दस्यु दलों की षरणस्थली मानते हैं परंतु इसके साथ ही यह घाटी सामाजिक समरसता का एक ऐसा उदाहरण भी प्रस्तुत करती है जो समाज में व्याप्त छुआछूत जैसी बीमारियां फैलाने वालों पर तमाचा मारती है। लोगों को यह जानकर हैरत होगी कि देष में इटावा जिले के लखना कस्बा में स्थिति मां कालिका देवी मंदिर ऐसा एकमात्र मंदिर है जिसका पुजारी मंदिर निर्माण के समय से लेकर अब तक सिर्फ दलित ही होता है। दलित पुजारी के प्रति लोगों में सम्मान का भाव है और इस प्रथा से समाज के सवर्ण वर्ग अथवा ब्राहमणों को भी कोई गुरेज नहीं है। वह इसे आपसी सद्भाव की एक मिसाल है। इसके साथ ही इसी मंदिर से सटी मजार भी गंगा-जमुनी तहजीब की इबारत लिखती है। इस मंदिर के इतिहास को जानने वाले बताते हैं कि इस मंदिर का निर्माण वर्श 1820 में तत्कालीन जमींदार जसवंत राव ने कराया था। जानकार बताते हैं कि लखना से सटे दिलीप नगर के जमींदार जसवंत राव लोकप्रियता हासिल करने के साथ ही मां कालिका देवी में अनन्य श्रद्धा रखते थे। जमींदार बाद में अघोशित राजा भी बन कर उभरे लेकिन उन के हृदय में सभी धर्म और वर्ग के प्रति बेहद लगाव था। वह मां कालिका देवी के दर्षन करने के लिए यमुना नदी के पार स्थित कंचेसी धार स्थित मंदिर जाया करते थे परंतु एक दिन यमुना का बहाव इस कदर तीव्र हुआ कि नियमित रूप से माता के दर्षन करने जाने वाले राजा जब उस दिन नहीं पहुंच सके तो उन्हें बेहद अफसोस हुआ। वह मां के दर्षन न कर पाने की सोचते ही सोचते सो गए तो मां कालिका देवी ने उन्हें स्वप्न में दर्षन दिए। स्वप्न में मां कालिका के दर्षन करने के अगले ही दिन लखना में स्थित एक पीपल के पेड़ में आग लग गई। उसी पेड़ के नीचे माता कालिका देवी की मूर्ति निकली। जिस पर राजा ने उसी स्थान पर माता कालिका का भव्य व विषाल मंदिर की स्थापना करा दी। इसके साथ ही यहां आने वाले भक्तों को असुविधा न हो इसके लिए मंदिर के समीप ही एक विषाल तालाब बनवाया। जानकार बताते हैं कि इस तालाब में हिंदुस्तान की प्रत्येक नदी का जल मिलाया गया था लेकिन बदलते परिवेष में प्रषासनिक उपेक्षा के कारण यह तालाब गंदगी से पटा पड़ा हुआ है। राजा जसवंत राव को जब यह अहसास हुआ कि मंदिर के निर्माण से कहीं इस्लाम को मानने वाले मुस्लिमों को किसी प्रकार की ग्लानि न हो तो उन्होंने उनकी भी धार्मिक भावनाओं का सम्मान करते हुए मंदिर से ही सटकर एक मजार की स्थापना कराई जिस पर मुस्लिम समुदाय अब अपनी आस्था जताता है। मंदिर निर्माण के साथ ही जब राजा जसवंत राव ने यह महसूस किया कि दलितों को समाज में सम्मान नहीं मिलता है और उन्हें हीन भावना का अहसास होता है, बस यही सोचकर उन्होंने एक नया इतिहास रचते हुए ऐलान कर दिया कि माता कालिका देवी के मंदिर का पुजारी दलित परिवार का ही होगा और छोटेलाल के पिताजी मंदिर के पहले दलित पुजारी बने। तब से लेकर आज तक इस मंदिर की पूजा-अर्चना का काम एक ही दलित परिवार की पांचवी पीढ़ी के अखिलेष एवं अषोक कर रहे हैं। इलाकाई लोग बताते हैं कि इस मंदिर के प्रति लोगों में इस कदर आस्था की देष के तमाम प्रांतों के लोग यहां माता के दर्षन को आते हैं और इन भक्तों का मानना है कि इस मंदिर में जो कुछ भी देवी मां से मांगो उसकी आरजू देवी मां पूरी करती हैं। ताज्जुब यह है कि इस मंदिर में हर वर्ग के लोग पूजा-अर्चना करते हैं परंतु आज तक के इतिहास में किसी ने भी दलित पुजारी के मुद्दे को लेकर अपना विरोध तक दर्ज नहीं कराया है। एक साथ जहां मंदिर में घंटे बजते हैं वहीं मजार पर कुरान की आयतें भी पढ़ीं जातीं हैं जो गंगा-जमुनी सांप्रदायिक सौहार्द की अद्भुत मिसाल है। मंदिर का दलित पुजारी एवं उसका परिवार मंदिर की पूजा-अर्चना से खासे उत्साहित हैं। वह इसे अपने लिए जहां गर्व समझते हैं वहीं राजा जसवंत राव का इसे उपकार मानते हैं। षास्त्र और पुराणों को जानने वालों का मानना है कि राश्ट्र की मनीशा में दो षक्तियां उभरीं हैं। इनमें से एक श्रव्य षक्ति है वहीं दूसरी षाक्त षक्ति है। श्रव्य षक्ति में जहां भगवान षंकर की पूजा अर्चना सिर्फ ब्राहमण करता है वहीं षाक्त षक्ति में देवी मां की पूजा अर्चना का विधान है जिसका पुराणों में भी उल्लेख है। देवी की पूजा दलित भी कर सकता है। इस मंदिर पर क्षेत्र के अधिकाधिक लोग अपने बच्चों का मुंडन कराने के साथ ही विवाहोपरांन नई बहू को माता के दर्षन कराने के लिए लाते हैं। इस कार्य में बधाई गीत भी चकवा जाति के लोग गाते हैं। यह काम उनका वंषानुगत कार्य है और वह तमाम पीढ़ियों से यह काम करते आ रहे हैं।